इतिहास की अमर गाथा बयां करता मध्य प्रदेश का ऐतिहासिक शहर मांडू!
होशंगशाह के मकबरे से बाहर निकल कर गाइड महोदय ने कार की ओर इशारा किया कि हम सब गाड़ी में बैठें और आगे चलें। कार तक पहुंचे तो मुझे हार्ट अटैक होते-होते बचा। कार बन्द थी और उसकी चाबी अन्दर ही सीट पर पड़ी हुई दिखाई दे रही थी। हमने गाइड से कहा कि भैया, अब पहले तो हमें गाइड करो कि ये कार कैसे खोली जायेगी! कुछ स्टील का फीटा-वीटा है क्या? दरअसल, यदि आपके पास स्टील का फीटा (आप शायद उसे फुटा कहना चाहेंगे) हो तो शरीफ और ईमानदार लोग अपनी कार का दरवाज़ा खोल सकते हैं पर ऐसा कैसा होता है यह बात मैं इस पब्लिक फोरम पर बताना नहीं चाहूंगा ! खैर, गाइड ने एक दुकानदार से लोहे का एक तार मांगा, उसे मोड़ा और कार में घुसाया और कार का दरवाज़ा खुल गया। कविता ने चाबी कार के अन्दर ही छोड़ देने की लापरवाही के लिये थोड़ी सी खिंचाई मुकेश की की (जिसका हर पत्नी को हक़ बनता है) जिसे उन्होंने खींसें निपोर कर चुपचाप सह लिया। पांच मिनट के भीतर ही चूंकि हमारी समस्या सुलझ गई थी अतः किसी का भी मूड खराब नहीं हुआ था और हम प्रसन्न वदन आगे बढ़ चले।
संकरी सी उस सड़क पर तीन चार किमी चल कर हमें दूर से एक बुर्ज दिखाई देना शुरु हुआ। रास्ते में जो – जो भी ऐतिहासिक टाइप के भवन हमें दिखाई दे रहे थे, हम गाइड से पूछ रहे थे कि भई, इनको कब दिखाओगे? वह हमें लारे-लप्पे देता रहा कि लौटते हुए देखेंगे पर वापसी के समय हम और किसी मार्ग से वापिस लाये गये। चलो खैर, अल्टीमेटली हम उस भीमकाय भवन के निकट जा पहुंचे जो दूर से एक छोटा सा बुर्ज महसूस हो रहा था। वहां लिखा था – रानी रूपमती का महल ! वहां हमने थोड़ी देर तक इमली वाले ठेले पर इमली के रेट को लेकर बहस की। ये मांडू की विशेष इमली थी जिसके बारे में मुकेश ने बताया कि ये सिर्फ यहां मांडू की जलवायु का ही प्रताप है कि यहां ये इमली उगती है। मैं अपने जन्म से लेकर आज तक इमली के नाम पर अपने परचून वाले की दुकान पर जो इमली देखता आया हूं, वह तो छोटे – छोटे बीज होते हैं जिनके ऊपर कोकाकोला रंग की खटास चिपकी हुई होती है और बीज आपस में एक दूसरे से पेप्सी कलर के धागों से जुड़े रहते हैं। वह ये तो इमली के फल थे जिनके भीतर बीज होने अपेक्षित थे। बाहर से इस फल पर इतने सुन्दर रोयें थे कि बस, क्या बताऊं = एकदम सॉफ्ट एंड सिल्की ! दूर से देखो तो आपको लगेगा कि शायद बेल बिक रही है, पर पास जाकर देखें तो पता चलता है कि इमली के फल की शक्ल-सूरत बेल के फल से कुछ भिन्न है और साथ में रोयें भी हैं! जब रेट को लेकर सौदा नहीं पटा तो हम टिकट लेकर रानी रूपमती के महल या मंडप की ओर बढ़ चले जो नर्मदा नदी से 305 मीटर की ऊंचाई पर एक पहाड़ी पर स्थित है। यह मुझे किसी भी एंगिल से महल या मंडप अनुभव नहीं हुआ। अब जैसा कि पढ़ने को मिला है, ये मूलतः सेना के उपयोग में आने वाली एक मचान हुआ करती थी जिसमें मध्य में एक बड़ा परन्तु नीची छत वाला हॉल व उसके दोनों ओर दो कमरे थे। पर बाद में उसमें विस्तार करके ऊपर बुर्ज व दो गुंबद बनाये गये। ये बुर्ज वास्तव में आकर्षक प्रतीत होती है। ये सब काम सिर्फ इसलिये कराने पड़े थे चूंकि रानी रूपमती को नर्मदा नदी के दर्शन किये बिना खाना नहीं खाना होता था, अतः वह यहां से ३०५ मीटर नीचे घाटी में एक चांदी की लकीर सी नज़र आने वाली नर्मदा की धारा को देख कर संतोष कर लिया करती थीं और एतदर्थ नित्य प्रति यहां आया करती थीं। इसी कारण बाज़ बहादुर ने इसमें कुछ परिवर्तन कराकर इसे इस योग्य कर दिया कि जब रूपमती यहां आयें तो वह रानी से कुछ अच्छे – अच्छे गानों की फरमाइश कर सकें और चैन से सुन सकें। जैसा कि आज कल के लड़के – लड़कियां मंदिर में जाते हैं तो भगवान के दर्शनों के अलावा एक दूसरे के भी दर्शन की अभिलाषा लेकर जाते हैं, ऐसे ही रानी रूपमती और बाज बहादुर भी यहां आकर प्रणय – प्रसंगों को परवान चढ़ाते थे। खैर जी, हमें क्या!
Entry to the Rupmati Pavillion
मांडू में इन ऐतिहासिक भवनों के दर्शन करते समय यह सदैव स्मरण रखना चाहिये कि ये लगभग छटी शताब्दी के निर्माण हैं जो परमार राजाओं द्वारा बनाये गये थे, सैंकड़ों वर्षों तक तिरस्कृत भी पड़े रहे हैं, न जाने कितने युद्ध और षड्यंत्रों की गाथाएं अपने अन्दर समेटे हुए हैं। जितने भी विदेशी आक्रांता यहां इस देश में आये हैं – चाहे वे मुगल हों, खिलजी हों, गौरी हों – उनका इतिहास सत्ता, धन और स्त्री लोलुपता का इतिहास रहा है, इन भवनों की उन्होंने अपने सिपहसालारों के हाथों मरम्मत करवाई, अतः वह हिन्दू व अफगान – मुगल स्थापत्यकला के नमूने मान लिये गये। हमारे सहारनपुर में भी एक भवन मैने देखा जिस की वाह्य दीवारों पर सदियों पहले से, बेइंतहाशा खूबसूरत, रंग-बिरंगे भित्ति चित्र उकेरे हुए दिखाई देते थे। ये भवन किसी अपरिचित व्यक्ति की व्यक्तिगत संपत्ति है, यह सोच कर मैने कभी उस भवन की फोटो नहीं खींचीं यद्यपि मन हमेशा करता रहा। फिर एक दिन देखा कि उन सब भित्ति चित्रों और प्लास्टर को उखाड़ा जा रहा है। तीन चार दिन बाद उस दीवार पर टाइलें लगाई जा रही थीं! बाबा और पिता के देहान्त के बाद बच्चों ने भवन का मालिकाना हक प्राप्त करते हुए पूर्वजों की इस अमूल्य निधि को कचरा समझ कर फेंक दिया और वहां टाइलें फिट करा लीं ! निश्चय ही सौ-पचास साल बाद इस भवन को भारतीय और यूरोपीय स्थापत्य कला का नायाब नमूना घोषित कर दिया जायेगा। हमारे गाइड ने भी बार-बार हमें बताया कि मांडू परमार राजाओं द्वारा बसाया गया दुर्ग और राजधानी थी जिसे मांडवगढ़ कहा जाता था। पुराने भवनों में तोड़ – फोड़ करके किसी को जामी मस्जिद नाम दे दिया गया तो किसी को अशर्फी महल घोषित कर दिया गया।
मुझे भी इस क्षेत्र के इतिहास को पढ़ते हुए यही आभास हुआ है कि गौरी, खिलजी, अफगान, मुगल आक्रांता यहां आते रहे, अपने पिता और बाबा के मरने की धैर्यपूर्वक प्रतीक्षा न कर पाने के कारण उनकी हत्या करते रहे और उनका सिंहासन हथियाते रहे। युवतियों का अपहरण करके जबरदस्ती उनको अपने हरम की शोभा बनाते रहे, दसवीं शती में बसाई गई राजा भोज की इस नगरी के भवनों में अपनी इच्छा व आवश्यकतानुसार तोड़-फोड़ कराते हुए, अपनी अपसंस्कृति के अनुकूल मनमाने परिवर्तन करते रहे और अब ये ’भारतीय-अफगान-मुगल-खिलजी स्थापत्य कला’ के नमूने माने जा रहे हैं। खैर जी, हमें क्या?
रूपमती पैवेलियन के प्रवेश द्वार से ऊपर मंडप तक की यात्रा S आकार की सर्पिलाकार सड़क से होकर पैदल ही पूर्ण करनी होती है। जो विदेशी पर्यटक सड़क पर घूमते – फिरते ऊपर जाना चाहते हैं, वह सड़क से जाते हैं और हमारे जैसी भारतीय जनता जो रेलवे स्टेशन पर ओवरब्रिज के बजाय पटरी पार करके दूसरे प्लेटफार्म पर जाने में ही समझदारी मानती है, वह ऊबड़-खाबड़ सीढ़ियों से होकर फटाफट ऊपर पहुंच जाते हैं। शिवम और संस्कृति हमें इसी ऊबड़-खाबड़ सीढ़ियों से ऊपर लेगये क्योंकि बच्चों को वैसे भी बन्दरों की तरह से उछल-कूद करने में कतई कष्ट नहीं होता है। हम ऊपर पहुंच कर अपनी सांसों पर काबू कर ही रहे थे कि मुंडेर से नीचे सड़क पर सैंकड़ों की संख्या में स्कूली बालिकाएं और बालक पंक्तिबद्ध होकर आते दिखाई दिये जो शायद किसी एजुकेशनल टुअर के तत्वावधान में लाये गये थे। इतने सारे बच्चों – बच्चियों के आगमन से अब ये मंडप भुतहा हवेली नहीं, बल्कि एक पिकनिक स्थल बन गया था जहां हर किसी के हाथ में एक मोबाइल कैमरा नज़र आ रहा था।
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इस ऐतिहासिक स्थल का जायज़ा लेने के बाद हम पुनः नीचे पार्किंग तक पहुंचे, इमली वाले से पुनः रेट को लेकर बहस की और कार में बैठ कर आगे चल पड़े। अब सड़क के किनारे दाईं ओर हमें दो भवन दिखाई दिये – एक छोटा और एक बड़ा ! कार रोक कर देखा कि इमली वालों की ठेलियां यहां भी मौजूद थीं । पुनः उनसे रेट पूछे गये। उन भवनों के बारे में पता चला कि वे दाई महल के रूप में जाने जाते हैं। इन भवनों की खास बात ये थी ये सड़क से यदि जोर से आवाज़ दें तो उन भवनों की ओर से हमारी आवाज़ गूंज कर वापिस लौट आती है। प्रवीण गुप्ता जी को यह जानकर विशेष प्रसन्नता होगी कि हमने वहां ’वन्दे मातरम्’ के खूब नारे लगाये और दाइयों ने भी अपने महल में से हमारे नारों का बखूबी प्रत्युत्तर दिया। अब यह बात जुदा है कि वहां अब दाइयां नहीं रहतीं, हमारी आवाज़ उन भवनों में से ही लौट कर हमें वापिस मिल रही थी । जब नूरजहां ही नहीं रहीं जो काफी प्रेग्नेंट रहा करती थीं तो दाइयों का ही क्या काम! हां, वहां पर हमें लंगूर काफी अधिक संख्या में दिखाई दिये पर उनको किसी पर्यटक से कुछ लेना देना है, ऐसा लग नहीं रहा था। सामान छीनने झपटने की उन्होंने कोई कोशिश नहीं की ! इस मामले में हमारे लंगूर उन विदेशी आक्रांताओं से कई गुना बेहतर साबित हुए जो दूसरों के महल, मंदिर और युवतियां छीनने में ही अपनी वीरता मानते थे। जानवर अगर भूखा न हो तो किसी से रोटी भी नहीं छीनता ! इससे पहले कि मांडू दर्शन के अपने किस्से को आगे बढ़ाया जाये, एक नज़र इस बोर्ड पर डालिये जो हमें मांडू स्थित श्री राम मंदिर के आंगन में लगा हुआ मिला था। यह श्रीराम मंदिर इस दृष्टि से अभूतपूर्व है कि यह देश का एकमात्र ऐसा मंदिर है जहां श्री राम चतुर्भुज रूप में विराजमान हैं। इन मंदिर में यात्रियों के ठहरने की सामान्य सी व्यवस्था है जो तीर्थयात्रियों के लिये पर्याप्त हो सकती है पर पर्यटकों के लिये नहीं !
यहां से आगे बढ़े तो नंबर आया बाज बहादुर के महल का ! अब सच कहूं तो या तो मुझे अक्ल नहीं है कि मैं प्राचीन ऐतिहासिक इमारतों की खूबसूरती को पहचान पाऊं या फिर शायद ये इमारत खूबसूरत थी ही नहीं ! यह भी संभव है कि कभी खूबसूरत रही होगी पर एक ऐसे राजा का महल कैसे खूबसूरत बना रह सकता है जो अकबर की फौज के आगमन की आहट सुन कर ही अपनी तथाकथित प्राणों से भी प्यारी रानी रूपमती को उसके हाल पर छोड़ कर भाग गया हो? बेचारी रूपमती ने बाज बहादुर के भाग जाने के बाद मुगल आक्रान्ताओं के हाथों जितने जुल्म सहे और अन्त में एक मुगल के हरम में जीवन बिताने के बजाय ज़हर खाकर प्राण त्याग देना बेहतर समझा, यह सब वर्णन सुनकर तो पत्थर दिल इंसान के भी आंसू निकल आयेंगे। पर हां, एक बात वहुत विशिष्ट थी यहां पर ! यहां हमें एक चबूतरे पर बैठा हुआ एक वृद्ध मिला जो बांसुरी बजा रहा था। मैने उसकी बांसुरी रिकार्ड की थी जो आपको सुनाने का बहुत मन है। हमारे कहने पर उसने स्थानीय भाषा में एक गीत गाकर सुनाया और फिर वही गीत बांसुरी पर भी बजा कर सुनाया। उसकी बांसुरी उस पूरे महल में गूंज रही थी।
मांडू का सच – एक कविता जो श्रीराम मंदिर के प्रांगण में लिखी थी !
श्री राम मंदिर, मांडू
श्रीराम मंदिर के बाहर अशर्फी महल के पास एक ढांचा
श्री राम, लक्ष्मण व सीता – संभवतः श्रीराम की भारत में अकेली चतुर्भुज प्रतिमा
श्रीराम मंदिर में यात्रियों के लिये नियम
बाज़ बहादुर महल के बाहर का दृश्य
बाज़बहादुर महल में मौजूद बांसुरी वादक
बाज़ बहादुर के महल में बांसुरी की स्वर लहरी !
बाज़ बहादुर महल के बाहर दावत
बाज़ बहादुर / रेवा कुंड और हमारा दावत स्थल
इस महल में हमारे गाइड ने भी एक कमरे में हमें खड़ा कर दिया और कहा कि मैं दूसरे कमरे में जाकर एक गीत गाउंगा, आप सुनियेगा ! मजबूरी में इंसान क्या क्या नहीं करता, हमें भी ये गीत सुनना पड़ा! बाज बहादुर के महल से बाहर निकले तो हमें लगा कि इस गाइड का हमें कुछ लाभ नहीं मिल पा रहा है, यह सिर्फ खानापूर्ति में लगा हुआ है। इसको साथ में रख कर हम वास्तव में अपने ज्ञान में कोई वृद्धि नहीं कर पायेंगे अतः हमने उसे धन्यवाद सहित विदा कर दिया! शायद उसने 250 रुपये लिये थे मुकेश भालसे से ! दर असल मांडू में जहां-जहां भी प्रवेश शुल्क दिया गया सब मेरे मेज़बान महोदय ने ही दिया था, अतः मुझे कुछ पता नहीं। (ऐसे मेज़बान सिर्फ हमारे हिन्दुस्तान में ही होते हैं।) खैर, महल से बाहर निकले तो सबसे महत्वपूर्ण निर्णय, जो निर्विरोध रूप से लिया गया था, वह ये कि सब को भूख लगी है, अतः फौरन से पेश्तर दस्तरखान लगा कर शाही मेहमानों के लिये खाना पेश किया जाये! एक तरफ बाज़ बहादुर का महल, दूसरी ओर रेवा कुंड, तीसरी ओर एक छायादार वृक्ष के पक्के चबूतरे पर दरी और चादर बिछाई गई और कार में से खाना निकाल कर लाये। यद्यपि कविता हमारी आवश्यकता से बहुत अधिक खाना बना कर लाई थीं पर हम ठहरे जन्म जन्म के भूखे प्राणी, अतः पूरी और सब्ज़ियों पर ऐसे टूट पड़े कि भोजन की आशा में आस-पास मंडरा रहे तीन कुत्ते सोचने लगे कि उनके हिस्से का भोजन भी शायद हम लोग ही खा जायेंगे। पर नहीं, कविता जैसी धर्मप्राण नारियों के होते यह कैसे संभव था? मां अन्नपूर्णा के भंडारे में से इन तीनों कुत्तों के हिस्से की भी एक -एक पूरी निकल आई जिसे खाकर शायद कुत्तों ने भी अपनी भाषा में हमें आशीष दिया होगा।
रेवा कुंड के निकट बच्चे
खाना खाकर अपनी मूछों पर ताव देते हुए मैं रेवा कुंड की ओर बढ़ा तो देखा कि एक बहुत ही सुन्दर मां-बाप अपने बेइंतहाशा सुन्दर बच्चों के साथ रेवा कुंड के तट पर अपनी बहुत सुन्दर सी कार के आस-पास खड़े हैं। उनकी एक नन्हीं सी, प्यारी सी बिटिया कार की छत से दुनिया का नज़ारा ले रही थी और उसका बड़ा भाई कार की खिड़की में से झांक रहा था। मैने उन बच्चों के पिता से आंखों – आंखों मे ही बात करके अनुमति ली कि उनके बच्चों की फोटो लेना चाहता हूं ! मुस्कुराते हुए उन्होंने ’गो अहैड’ सिग्नल दिया और मैंने उनके कुछ चित्र खींच डाले ! अब आगे कहां जायें? मुकेश बोले, अब एक ऐसी जगह चलते हैं जिसे देख कर आप धन्य हो जायेंगे ! मैने कहा कि मैं तो आया ही इसलिये हूं कि धन्य हो सकूं ! बस, कार को पुनः जामी मस्जिद के पास वाली सड़क पर आगे बढ़ाते हुए हम जा पहुंचे – जहाज महल! वाह, भई वाह ! क्या अद्भुत वास्तुकला का नमूना है ये जहाज महल भी ! मुझे उस समय तो ये समझ नहीं आया था कि इसे जहाज महल नाम क्यों दिया गया होगा परन्तु सहारनपुर आकर जब मांडू के बारे में पढ़ा तो यह पता चला कि जहाज महल को देखना हो तो सामने तवेली महल से देखना चाहिये। बिल्कुल ऐसा प्रतीत होता है कि एक जहाज समुद्र में लंगर डाले खड़ा है। स्वाभाविक ही है कि यदि आपको ऐसा आभास चाहिये तो जहाज महल देखने के लिये आपको वर्षा ऋतु में जाना चाहिये जब वहां पानी की कोई कमी न हो !
जहाज महल से दिखाई दे रहा कपूर तालाब और बागीचा
जहाज महल के सामने मौजूद कला-दीर्घा
पढ़ लीजिये, क्या क्या लिखा है जहाज महल के बारे में ।
पानी के जहाज जैसा जहाज महल !
जहाज महल – विलासिता का पूरा जुगाड़ !
जहाज महल का बारीकी से वास्तुकला के दृष्टिकोण से वर्णन करना अपने बस की बात नहीं ! काश, निर्देश सिंह और डी.एल. इस भवन के बारे में विस्तार से लिखें और हमें समझायें कि किस चीज़ का क्या-क्या महत्व है। शेर – चीतों – तेंदुओं का वर्णन सुनना हो तो प्रवीण वाधवा की भी सेवायें ली जा सकती हैं। इस बहु मंजिला इमारत को हम उलट-पुलट कर हर दिशा से देखते रहे और ऐसे गर्दन हिलाते रहे जैसे सब समझ में आ गया हो। मैं तो तीन बार फोटो खींचने के चक्कर में भालसे परिवार से ऐसे बिछड़ गया जैसे रामगढ़ के मेले में बच्चे अपने मां-बाप से बिछुड़ जाते हैं और फिर एक बॉलीवुड की फिल्म बन जाती है। पर अफसोस, इससे पहले कि मेरे बिछड़ने को लेकर कोई कहानी लिखी जाती, मुकेश मुझे मिस कॉल दे देते थे कि बंधु, कहां हो? तीन बार जब ऐसा हो गया तो उनको समझ आ गया होगा कि मेरी श्रीमती जी मेरी अर्द्धांगिनी होने के बावजूद भी मेरे साथ कहीं घूमने क्यों नहीं जाना चाहती हैं ! वह बेचारी मुझे कहां ढूंढती फिरेंगी जंगलों और कंदराओं में?
इस परिसर में न केवल जहाज महल मौजूद था, बल्कि हिंडोला महल, चंपा बावड़ी आदि भी थीं । हिंडोला महल के बारे में कहा जाता है कि इसमें झूले में झूलने जैसा सा आभास होता है। हो सकता है भई, होता हो पर मुझे तो नहीं हुआ। चंपा बावड़ी के बारे में बताया गया कि यहां पानी में चंपा की खुशबू आती थी इसलिये इसका नाम चंपा बावड़ी पड़ गया। इन भवनों में जल-मल निकासी व्यवस्था बहुत वैज्ञानिक है। मांडू दुर्ग चूंकि ऊंची पहाड़ी पर बसा हुआ था, वहां पानी का शाश्वत अकाल न हो, इसके लिये बड़ी समझदारी पूर्ण व्यवस्था की हुई थी जिसे आजकल लोग rainwater harvesting कहते हैं । पानी बरबाद बिल्कुल न हो, ऐसा प्रयास किया जाता था।
चंपा बावड़ी की सीढ़ियों पर जरा गौर फरमाइयेगा !
हिंडोला महल के बाहर ध्यान में लीन शिवम् !
Sloping walls of Hindola Mahal.
यहां से निकले तो मुकेश ने कहा कि नीलकंठेश्वर मंदिर भी यहीं कहीं था, चलिये वह भी देखते हैं। कार में बैठ कर आगे निकले तो उन्होंने एक दुकान के आगे कार रोक दी और मांडू दर्शन नाम से एक पुस्तिका खरीद कर मुझे भेंट कर दी! जामी मस्जिद की दूसरी ओर से बस-स्टैंड के सामने से हम निकले तो एक और भवन दिखाई दिया – छप्पन महल! हे भगवान ! इन्दौर में छप्पन दुकान और यहां छप्पन महल और कविता के घर में जाओ तो छप्पन भोग ! ये मालवा वाले भी बस ! कार रोक कर मुकेश ने कहा कि अगर देखना चाहें तो देख आइये इसे भी फटाफट, हम कार में ही हैं। मैं तेजी से उस तथाकथित छप्पन महल की जीर्ण शीर्ण सीढ़ियों की ओर लपका – सीढ़ियों के दोनों ओर मूर्तियां स्थापित थीं, उनकी फोटो खींचते खींचते ऊपर पहुंचा तो एक सज्जन बोले कि टिकट ले लीजिये। मैने कहा कि अभी हम लोग जरा जल्दी में हैं अतः परिवार वालों से पूछ लेता हूं कि देखना चाहेंगे क्या। अगर सब लोग हां कहेंगे तो टिकट ले लेंगे। वह बोले कि अगर टिकट नहीं लेना है तो आप फोटो क्यों खींच रहे हैं? मैने कहा कि ऐसा कोई नोटिस तो यहां लगा हुआ मैने देखा नहीं कि बिना टिकट के फोटोग्राफी निषिद्ध है और अगर निषिद्ध है भी तो मुझे पता ही नहीं कि ’निषिद्ध’ का क्या मतलब होता है। और वैसे भी, मैं जरा जल्दी में हूं, झक मारने का मेरे पास फालतू टैम नहीं है, अतः बाय-बाय, नमस्ते, टाटा !
अब हम पुनः कार को ले चले नीलकंठेश्वर के दर्शन के लिये। रास्ते में एक सूखी हुई नदी के पुल पर से गुज़र रहे थे तो मैने कहा कि “वाह, क्या सीन है!” बस, मुकेश ने वहीं पूरी ताकत से बीच सड़क पर ब्रेक मार दिया। हमारे पीछे एक मोटर साइकिल आ रही थी, बेचारा बाइक वाला स्वप्न में भी नहीं सोच सकता था कि हम ऐसे चलते चलते बीच सड़क पर गाड़ी रोक देंगे अतः वह रुक नहीं पाया तो जोर से कार में अपनी बाइक दे मारी ! अब गलती तो अपनी ही थी, उसे क्या कहते? बाहर निकल कर देखा तो कार का बंपर पिचका हुआ देख कर मुकेश का भी मूड पिचक गया। मैने एक ईंट लेकर बंपर को अंदर की ओर से बाहर धकेला तो वह तुरन्त वापिस ओरिजिनल शक्ल में आगया। आजकल कारों में प्लास्टिक के बंपर आने लगे हैं जो चोट सहने के बजाय अंदर घुस जाते हैं। हमारे पड़ोसियों के घर में भी एक कुत्ता था। रात को कोई अजनबी आवाज़ सुन कर वह तुरंत अपने मालिकों की खाट के नीचे घुस कर अपनी पीठ रगड़ने लगता था और पड़ोसियों की आंख खुल जाती थी। डर कर ही सही, कुत्ता जगा तो देता था। यही हाल आजकल के बंपरों का है। खैर, हमारी कार के बंपर में बस एक खरोंच सी रह गई थी सो मुकेश को थोड़ी सी डांट पड़ी (किसने डांटा, ये मैं नहीं बताऊंगा, ये अन्दर की बात है!) और हम सब खुशी-खुशी आगे चल पड़े।
नीलकंठेश्वर मंदिर सड़क से नीचे सीढ़ियों से उतर कर जाना होता है, सड़क से गुंबद आदि दिखाई नहीं देता। अतः एक बारगी तो पता ही नहीं चलता कि हम मंदिर पीछे छोड़ आये हैं। कुछ आगे जाकर फिर लौटे और मंदिर का रास्ता पहचान कर मुकेश ने गाड़ी पुनः रोकी और हम सब सीढ़ियां उतर कर नीचे मंदिर में पहुंचे। मंदिर के प्लेटफार्म से भी नीचे लोहे की सीढ़ी से उतर कर शिवलिंग की स्थापना की गई है जहां एक पंडित जी धूनी जमाये बैठे थे। बाहर आंगन में एक कुंड था, जिसमें यदि पानी पूरा भर चुका हो तो एक सर्पाकार आकृति से होकर पुनः नीचे जाता रहता है। बच्चा लोगों को इस सर्पाकार आकृति से घूम घूम कर पानी का जाना बड़ा भा रहा था अतः इसी खेल में लगे हुए थे। मंदिर की दीवार पर उर्दू / फारसी / अरबी में कुछ लिखा हुआ था जो हम पढ़ नहीं सकते थे। पर घर आकर एक विवरण मिला है – कह नहीं सकता कि यह इन्हीं पंक्तियों का हिन्दी रूपान्तर है या कहीं और भी कुछ लिखा हुआ था।
तवां करदन तमामी उम्र, मसरूफे आबो गिल । के शायद यकदमे साहिब दिले, ईजां कुनद मंजिल॥
(अपनी तमाम उम्र मिट्टी और पानी के काम में इसी एक आशा के साथ गुज़ार दी कि
कोई सहृदय मनुष्य यहां क्षण भर के लिये विश्राम करे ! )
कोई सहृदय मनुष्य यहां क्षण भर के लिये विश्राम करे ! )
मंदिर की दीवारों पर उत्कीर्ण संदेश ! पता नहीं ये संदेश ज्यादा पुराने हैं या मंदिर !
पढ़ पा रहे हैं ना?
प्रसाद ले लो जी प्रसाद ! प्रसाद, इमली, शरीफा, फूल सब कुछ इस महिला के पास उपलब्ध है।
मंदिर तक पहुंचने के लिये इन सीढ़ियों से नीचे उतरना होता है।
नीलकंठ मंदिर, मांडू
काश मुझे अरबी फारसी भाषा आती !
चलो, पानी डाल – डाल कर खेलें!
अब शाम होने लगी थी और थकान भी काफी हो गई थी, अतः बिना कहीं और रुके हमने वापसी की यात्रा शुरु की। धार पहुंचे तो मुकेश और कविता की इच्छा थी कि मैं उनके घर पर ही रुकूं और अगले दिन धार शाखा वहीं से चला जाऊं। परन्तु इंदौर के होटल में मेरा सामान रखा हुआ था और अगले दिन सुबह धार आना हो तो भी होटल से चैक आउट करके ही पुनः धार आना चाहिये था ताकि होटल का बिल अनावश्यक रूप से न बढ़ता रहे। मेरी विवशता को समझते हुए उन्होंने मुझे इन्दौर जाने वाली एक तीव्रगामी बस में बैठा दिया जो टूटी फूटी सड़क पर मंथर गति से चलती हुई रात्रि ८ बजे तक मुझे इंदौर ले आई।
अब मेरे पास सिर्फ डेढ़ दिन का समय बाकी था यानि पूरा सोमवार और आधा मंगलवार ! इन दोनों दिनों में मैने क्या-क्या किया, कहां – कहां घूंमा – यह सारा विवरण लेकर पुनः आपकी सेवा में हाजिर होऊंगा। तब तक के लिये प्रणाम !
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